कठनाइयों की चले आँधी अड़चनें बन जाए तूफान|
फिर भी ना ढले जो पथ से कहलाते वो ही वीर महान|
चाहे आकाश से बरसे आग या तीरों की हो बौछार|
मातृभूमि के लिए झेलते सिने पे शत शत प्रहार|
पत्ता बने भाला हर डाली बन जाए तलवार|
जब देश पर मर मिटने को हर इंसान हो तय्यार|
स्वतंत्रता के लिए जिन्होने कष्ट सहे अपरंपार|
उन वीरों को सर झुकाके नमन करूँ मैं सैंकड़ो बार|
©परिमल विश्वास गजेंद्रगडकर
फिर भी ना ढले जो पथ से कहलाते वो ही वीर महान|
चाहे आकाश से बरसे आग या तीरों की हो बौछार|
मातृभूमि के लिए झेलते सिने पे शत शत प्रहार|
पत्ता बने भाला हर डाली बन जाए तलवार|
जब देश पर मर मिटने को हर इंसान हो तय्यार|
स्वतंत्रता के लिए जिन्होने कष्ट सहे अपरंपार|
उन वीरों को सर झुकाके नमन करूँ मैं सैंकड़ो बार|
©परिमल विश्वास गजेंद्रगडकर
१६/१२/२०१०
'जिथे गवताला भाले फुटतात' या नाटकाच्या शीर्षकावरून मला या ओळी सुचल्या.या ओळी मी गेल्या वर्षी बांग्लादेश विजयदिवसाच्या दिवशी लिहिल्या होत्या. परवा २३ मार्चला मी या ओळी माझ्या कंपनीतील ब्लॉग वर टाकल्या होत्या. आज इथे लिहितोय.
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